Friday, October 17, 2014

शब्दों की पुकार

कभी कभी शब्द
खो देते हैं अपने मायने
अपने होने का अर्थ
हम पुकारते रह जाते हैं
पर आवाज़ कहीं गुम हो जाती है
पहुचती नही लोगों के कानों तक
या शायद भुल जाती है
गले से निकलना
या खो जाती है
किसी अंतहीन गली के
अंतहीन सिरों में …
तो इन शब्दो के मायने ही क्या
क्यू हैं ये हमारी ज़िंदगी में
मिट क्यू नही जाते ये
तब ना होगी पुकार
न होगा दंश
की किसी ने नहीं सुनी पुकार
तब
नही खोएंगे शब्द
अपना अर्थ
अपने होने के मायने
ओ शब्द तुम खो जाओ

भाषा तन -मन की

मैने मांगा मन,
उसने मांगी देह
मैंने अनाव्रत्त कर दिया खुद को
उघाड दी देह
उसने जी भर रौंदा
देह के हर वृत्त को
उभारों को
सहलाया,मसला
जब उब गया मन
ढीला छोड दिया हर बंधन
हांफते कुत्ते की तरह
अपने होंठों पर तृप्ति की
जुबान फेर पसर गया उसका तन
अब वो लालायित नहीं है
छुने को ठंडा जिस्म
अब नहीं फैलती
उसके होंठों पर वो
छत्तीस इंची मुसकान
क्योंकि अब उसने पा लिया है
जब तब रौंंदने को एक शरीर
मन का क्या है
उसे समझ पाये या ना समझे
उसे तो मतलब है
सिर्फ देह के भुगोल से .......

दर्द

पुराना कोई रोग फ़िर से उभर आया है शायद …
कभी-कभी दर्द और रोग भी
मजा देने लगते हैं
जब जिंदगी
सजा सी लगने लगती है
बोझिल होता है मन और
शिथिल होने लगता है तन
ये दर्द ही हमें
अपने होने अहसास दिलाते हैं
वरना यूँ तो गुम हो जाते हैं हम
इस दुनिया की भीड में
कहाँ किसी को है फुरसत कि
वो झांके खुद में ही.....
दर्द ही आभास देता है कि
जिंदगी मुझमें
बाकि है अब भी......
आज सुबह से ही वो अपनी डायरी को खोजने में जुटी थी।डायरी जिसमें कैद थी उसकी तमाम आरजुएं,हसरतें,उसके आँसू,दर्द ,उसका बचपना…कितना कुछ जो सबसे छुपाकर रखा था।
घर का कोना कोना छान मारा।डायरी कहीं नहीं मिली।वो रूवांसी सी होकर बैठ गई।
तभी बेटे ने कंधे पर हाथ रखा।क्या हुआ माँ ,क्यूं परेशान हो।कुछ नहीं मेरी डायरी नहीं मिल रही।वो तो रद्दी में बेच दी माँ।
फिर बेटे ने गळे से लगाते हुए कहा-माँ भूल जाओ अतीत की कङवाहट को।हम सब साथ हैं वर्तमान में जीयो ना।
उसे लगा बेटा सच कह रहा है।उसे यादों में जीना छोङ वर्तमान में जीना चाहिये और भविष्य को सुखद बनाने की कोशिश करनी चाहिये।उसने अपने आँसू पोछे और होंठों पर मुस्कुराहट बिखेरी।वो यादों में नहीं जियेगी।

जाने कब तक
ठहरे
हमारी यादें
तेरे दिल के
दालान मैं ...
हम तो
चिरैया हैं
बस यादों के पंख
फैलाए
आ बैठे हैं
कभी दालान मैं
कभी सेहन मैं ...
हमारे पंखो को
सहेजना है
या कतरना
अब तुम ही
कर लो फ़ैसला ....
………नीता.…